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“रास्ता आसमान में नहीं है; रास्ता दिल में है।” – बुद्ध
सुबह की सैर मेरी दिनचर्या का एक अनिवार्य हिस्सा है। सौभाग्य से हमारे घर. के पास ही एक बहुत बड़ा और खूबसूरत पार्क है, जहां आसपास के बहुत से लोग सैर के लिए आते हैं। इस बहाने जान पहचान के कुछ लोगों से मिलना भी हो जाता है।
इधर कुछ दिन से मैं देख रही थी कि एक बुजुर्ग व्यक्ति रोज पार्क में लगी एक बैंच पर देर तक बैठे रहते हैं। उनको पहले कभी वहां देखा नहीं था। वह रोज आकर चुपचाप वहां अकेले बैठे आने-जाने वालों को देखा करते और बीच-बीच में चश्मा उतार कर रुमाल से अपनी आंखें पोंछते रहते।
एक दिन मेरे मन में आया कि उनसे कुछ बातचीत की जाए। मैं उस बैंच पर उनके साथ आकर बैठ गई। उन्होंने चौंक कर मेरी तरफ देखा। मैंने तुरंत मुस्कराते हुए अभिवादन के साथ अपना परिचय दे दिया। शुरुआत की झिझक खुलने के बाद बातों का सिलसिला चल निकला। पता चला कि वह पिछले तीस साल से विदेश में थे और अब पत्नी के देहांत के बाद अकेले यहां अपने घर लौट आए हैं। बच्चे विदेशों में बस गए हैं। यहां अब उनका कोई दोस्त है न रिश्तेदार। बात करने तक के लिए कोई नहीं है। उस पर से कई बीमारियों से जूझ रहे हैं। नौकरों की दया पर जिंदगी काट रहे हैं। अकेलापन खाने को आता है तो यहां आकर बैठ जाते हैं कि कोई दिखाई तो दे। लेकिन यहां भी किसी के पास फुर्सत नहीं कि कुछ पल रुक कर उनसे बात करें।
उनकी बातचीत से साफ जाहिर था कि उनकी मायूसी और अकेलापन उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव डाल रहे हैं। अपने अनुभव से मुझे लगा कि उनकी अधिकांश समस्याओं का हल मानसिक शांति और आध्यात्मिकता से मिल सकता है। उनके लिए बहुत आवश्यक है कि वह अपनी वर्तमान स्थिति को स्वीकार करें और सकारात्मक रहें। जब मैंने उनसे इस बारे में बात करने की कोशिश की तो वह अपने भाग्य को कोसने लगे और बोले कि ईश्वर पर उनका अब कोई विश्वास नहीं रहा। मैंने उन्हें समझाया कि धर्म और अध्यात्म नितांत भिन्न हैं। और मैं यह नहीं कह रही हूँ कि वह अपनी इच्छा के विरुद्ध ईश्वर का ध्यान करें। इस पर वह कुछ आश्वस्त से लगे।
अगले दिन शाम को जब मैं उनके पास बैठी तो सूर्यास्त होने को था। मैंने उनसे पास लगे पीपल के पेड़ के पत्तों पर ध्यान केंद्रित करने को कहा कि देखिए, अब से लेकर सूर्यास्त होने तक ये पत्ते कितने रंग बदलते हैं। बस, फिर क्या था, वह इतने मग्न हो गए कि पता ही नहीं चला कब आधा घंटा बीत गया। इस बीच न तो वह एक बार भी दर्द से बेचैन हुए और न ही रुमाल से आंखें पोंछीं। मैंने हंस कर कहा, आप तो क्या खूब ध्यान लगाते हैं, यही तो है अध्यात्म की दिशा में पहला कदम।
उसके बाद तो यह रोज का सिलसिला बन गया। कभी किसी पेड़ पर, कभी पार्क में स्थित जलाशय पर, कभी आसमान में रंग बदलते बादलों पर, तो कभी अपनी सांसों पर उनका ऐसा ध्यान लगने लगा कि और कुछ भी याद नहीं आता। मन बदला तो सोच बदली, व्यवहार बदला, और धीरे-धीरे स्वास्थ्य में भी सुधार होने लगा। चिड़चिड़ापन और गुस्से का स्थान प्रेम और प्रसन्नता ने ले लिया। अब दुनिया उन्हें सुंदर लगने लगी और जीवन जीने लायक लगने लगा। घर के किसी बंद कमरे से एक भूला बिसरा कैनवस बाहर निकाला गया, और पार्क में बैठ कर पेंटिंग बनाने की शुरुआत हो गई। यह देख उनके आसपास पार्क में खेलने आए बच्चों का जमावड़ा लगने लगा। कुछ हमउम्र लोग भी उस बैंच पर आकर महफिल जमाने लगे और अक्सर उनके ठहाके दूर तक सुनाई देने लगे। और इस तरह अध्यात्म से आई सकारात्मक और मानसिक शांति ने अवसाद के भंवर में फंसती जा रही एक जिंदगी को वापस सही राह पर लाकर डूबने से बचा लिया।
इस तरह के कई प्रयोग मैंने अकसर वृद्धाश्रमों में रह रहे व्यक्तियों पर भी किए हैं, और अधिकांश मामलों में अप्रत्याशित सफलता प्राप्त की है। वह सब मैं आपसे कभी और साझा करूंगी।
जैसे-जैसे हमारी उम्र बढ़ती है, हम जीवन में कई बड़े बदलावों का अनुभव करते हैं, जिनमें करियर में बदलाव और रिटायरमेंट, बच्चों का घर छोड़ना, प्रियजनों को खोना, तथा शारीरिक और स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियाँ शामिल हैं। बहुत से लोग जीवन में बाद में आने वाले इन व्यावहारिक और अस्तित्वगत मुद्दों से निपटने के लिए तैयार नहीं होते हैं। यही कारण है कि अकसर लोगों को वृद्धावस्था से बहुत डर लगता है और चिंता होती है। इनमें से कई डर तो उम्र बढ़ने के बारे में प्रचलित गलत धारणाओं से पैदा होते हैं। हम इन स्थितियों को कैसे संभालते हैं और उनसे कैसे निपटते हैं, यही हमारी स्वस्थ वृद्धावस्था की कुंजी होती है।
जो लोग आध्यात्मिकता की ओर रुख करते हैं, उनके जीवन में निम्न परिवर्तन देखे गए हैं:
- बेहतर शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य
- कम अवसाद
- कम तनाव
- अधिक सकारात्मक भावनाएँ
- मानसिक शांति
आध्यात्मिकता का मतलब किसी विशेष अभ्यास से नहीं है। आपको केवल अपने मन और विचारों को किसी एक जगह केंद्रित करना है। यदि आप अपने शरीर, मन, भावनाओं और ऊर्जा को नियंत्रित कर परिपक्वता के एक निश्चित स्तर तक विकसित करते हैं, तो आप जीवन को पूरी तरह से एक अलग नज़रिए से देख पाते हैं। आध्यात्मिकता व्यक्ति के मस्तिष्क को और उसकी सोच को बदल देती है, सकारात्मक बना देती है।
जीवन में आध्यात्मिकता को अपनाने से वृद्ध व्यक्तियों को उम्र बढ़ने की प्रक्रिया को स्वीकार करने और दूसरों के साथ जुड़ाव पाने में मदद मिल सकती है। जैसे-जैसे वरिष्ठ नागरिक उम्र बढ़ने की चुनौतियों का सामना कर रहे हैं, आध्यात्मिकता एक संतुष्टिदायक और सार्थक अस्तित्व की ओर उनका मार्गदर्शन कर सकती है, उन्हें मानसिक शांति प्रदान कर सकती है, तथा उनके समग्र जीवन की गुणवत्ता को बढ़ा सकती है। और एक सकारात्मक, संतुष्ट एवं प्रसन्न व्यक्ति अपने परिवेश के सब लोगों को खुश रख सकता है, सबका प्रिय पात्र बन सकता है।
लेखक: डा. अनीता एम कुमार