Powered by

Home Wellness मेरा बचपन (60 का दशक) बनाम आज का बचपन – सादगी से भरे सुनहरे दिनों की यादें

मेरा बचपन (60 का दशक) बनाम आज का बचपन – सादगी से भरे सुनहरे दिनों की यादें

A nostalgic comparison between childhood in the 1960s and today’s fast-paced digital era — reflecting on simplicity, nature, discipline, and the lost charm of growing up in open spaces and heartfelt connections.

By Gen S Life
New Update
ChatGPT Image Oct 6, 2025, 05_28_35 PM

 मेरा बचपन (60 का दशक) तेरा बचपन (आज)


मुझे हमेशा से खुद की कंपनी में खुद के साथ टाइम स्पेन्ड करना बहुत पसंद है। मैं जब भी
अकेली और फुरसत में होती हूँ, तो मेरा फेवरेट पास टाइम है अपने अतीत के पन्ने पलटना। और
अतीत की किताब में मेरा सबसे फेवरेट चैप्टर है मेरा बचपन।
मेरा बचपन एक छोटे शहर में बीता। शहर छोटा था, मगर घर बहुत बड़े-बड़े थे। हमारा घर
आजकल के किसी छोटे रेसिडेन्शियल कॉम्प्लेक्स से भी ज्यादा बड़ा था। ऊंची छतों वाले बड़े-
बड़े कमरे, आगे बड़ा-सा वरांडा, खूब बड़ा लॉन, और फूलों की क्यारियों से भरा बगीचा; और
पीछे बहुत बड़ा खुला-खुला आँगन, बाहर दूर तक फैला किचन गार्डन और ग्रास एरिया, जिसमें
लीची, आम, अमरूद, जामुन वगैरा जैसे फलों के पेड़ों और नीम, पीपल, गुलमोहर, पलाश,
अमलतास जैसे फूल वाले और छायादार पेड़ों से घिरा एक छोटा-सा पॉन्ड भी था। माली काका
एक-एक फूल-पत्ती और पेड़-पौधे की संभाल ऐसे करते थे, जैसे वे उनके बच्चे हों। मेरे पापा को
भी गार्डनिंग का बहुत शौक था। उनके साथ गार्डन में बीज बोना, और फिर उनसे अंकुर निकलते
और पौधों को बड़े होते देखना मेरे लिए एक अलग ही रोमांच से भरा अनुभव होता था।

उन दिनों रात को हम जल्दी ही सो जाया करते थे। खुली-खुली प्रदूषण मुक्त आबोहवा में बिना
किसी सेलफोन या टीवी वगैरह की डिस्टरबेन्स के नींद अच्छी और गहरी आती थी। इसीलिए
सुबह एकदम तरोताजा होकर जल्दी उठ जाते थे। सुबह की सैर के बिना तो दिन अधूरा लगता
था। ओस में भीगी मुलायम घास पर नंगे पाँव भागना, चिड़ियों को दाना डालना, ताजे पके फल-
सब्जियां तोड़ कर माँ को लाकर देना, यह सब करने के बाद स्कूल जाने की तैयारी शुरू होती थी।
स्कूल का भी एक अलग ही माहौल हुआ करता था। बच्चों में अनुशासन बहुत होता था। सब कुछ
अपने सही समय पर करना होता था, वरना टीचर्स पिटाई भी कर देते थे। और उनकी इस सख्ती
से किसी को भी कोई आपत्ति नहीं होती थी। बच्चे तो बच्चे, पेरेंट्स के लिए भी टीचर्स परम
आदरणीय होते थे।
मेरी माँ एक हाउस वाइफ थीं, जैसे कि उस समय की ज्यादातर मदर्स हुआ करती थीं। स्कूल से
घर लौट कर फ्रेश होने के बाद माँ गरमा-गरम खाना परोस कर देती थीं। फिर थोड़ी देर आराम के

Written By : Anita. M. Kumar